यह सृष्टि कर्मफल के आधार पर चल रही है। ईश्वर ने संसार को रचकर उसे नियमबद्ध, क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित रखने के लिए कर्मफल का विधान रचा। ईश्वेर ने कर्म करने की स्वतंत्रता तो प्रत्येक प्राणी को दी किंतु इसके साथ ही यह विधान भी बना दिया कि कर्मों का कर्मफल भुगतना ही पड़ेगा चाहे अच्छा हो अथवा बुरा और इस नियम से ईश्वर ने स्वयं को भी मुक्त नहीं रखा। वह भी इसी मर्यादा में बँध गये।

विभाग कार्यवाहिका हरिगढ़
राष्ट्र सेविका समिति
भगवान राम ने छिपकर बालि को मारा, उसी का प्रतिफल उन्हें कृष्णजन्म में बहेलिया द्वारा तीर से भेधे जाने के रूप में भुगतना पड़ा। राम के पिता दशरथ ने श्रवण कुमार को बाण से मार दिया और परिणाम स्वरूप उनकी मृत्यु भी उसी प्रकार बिलख-बिलख कर अपने पुत्र राम के वियोग में हुई। स्वयं नारायण भी अपने पिता को इस कर्मफल से छुड़ाने में समर्थ नहीं हुए। अयोध्या कांड में देव गुरु बृहस्पति देवराज इंद्र को भगवान की कर्म मर्यादा का बोध कराते हुए कहते हैं।
- कर्म प्रधान विश्व करि राखा।
- जो जस करई सो तस फ़लू चाखा।।
यहाँ कर्म की ही प्रबलता है, इसीलिए श्रेष्ठ कर्म करके इस संसार से विदा लेना हमारे महापुरुषों ऋषि-मुनियों की परंपरा रही है। वर्तमान समय में हम जहां आज स्वयं को खड़ा पाते हैं वहां गहराई से यदि चिंतन करें तो पाएंगे कि आज की युवा पीढ़ी कर्मफल के इस सिद्धांत पर पूर्णतया अमल नहीं करती या यूं कहें कि इस बात को समझने का प्रयास नहीं करती। परिणामस्वरुप नीति और अनीति में विभेद करने मे पूर्णतया सफल नही हो पाती और यही कारण है कि जब जब जहां कहीं धर्म की हानि होती है, वहां उसकी प्रतिक्रिया या तो आती ही नही और यदि आती है तो हल्की फुल्की।। जबकि हमें आज आवश्यकता एक धर्मपरायण, धेय्य्ंनिष्ठ, मार्गदर्शक समाज की है जिसकी ओर पूरा विश्व आशा भरी निगाहों से देख रहा है ।
अनीति का विरोध करना मानवता का अत्यंत पवित्र कर्तव्य है । इसके बिना नीति का समर्थन हो ही नहीं सकता। नीति का पोषण अनीति के उन्मूलन के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। अनीति के अवरोध के जो चरण बताए गए हैं असहयोग, निंदा, विरोधऔर संघर्ष प्रमुख हैं। धर्म की स्थापना के लिए अनीति के विरुद्ध संघर्ष यदि कुछ सज्जन हुतात्माओं से आगे बढ़कर समाज के किसी वर्ग में परिलक्षित हो तो समझ लेना चाहिए कि समाज एक धर्मपरायण समाज में बदल रहा है। सत्कर्मो में सहयोग देना, उनकी सुरक्षा व्यवस्था के लिए कटिबद्ध रहना और जो धर्म की आलोचना करते हैं उनसे निपटने के लिए बड़े से बड़ा खतरा उठा कर भी संघर्षरत होना प्रत्येक शक्तिशाली व्यक्ति का कर्तव्य है। यह सत्य है कि धर्म की रक्षा महान लोगों के द्वारा ही की जाती है। सामान्यतः लोगों का मानना होता है कि महानता का अर्थ सीधा-साधा, विनम्र, दयालु, सहज एवं सरल व्यक्तित्व है परंतु यह सोचना एकांकी है। नम्रता, दयालुता, सौम्यता निश्चित ही बड़े उपयोगी और महत्वपूर्ण गुण हैं परंतु इनके साथ ही साहस, शौर्य, दृढ़ता की गणना भी इन्हीं गुणों में होती है। कहने का आशय यह है कि समुचित स्थल पर समुचित गुणों का प्रयोग उचित होता है। शालीनता पूर्वक ही सही दृढ़ता पूर्वक अपने पक्ष को रखना भी आवश्यक होता है अन्यथा सामने वाला भ्रम में पड़ा रहता है। त्रेता युग में जन्मे मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और परशुराम के मध्य हुआ संवाद इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। रामचंद्र जी परशुराम जी को संत ब्राह्मण के नाते सम्मान दे रहे थे और वे उसे अपना तिरस्कार समझ कर क्रोधित होते जा रहे थे। तब श्री राम को उनका भ्रम दूर करने के लिए शालीनता पूर्वक ही सही पर तेजस्वी ढंग से प्रतिवाद करना पड़ा।
- जौ हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहू भृगुनाथ।
- तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहि माथ।।
अर्थात हे भ्रगुनाथ! सच बात तो यह है कि यदि हम ब्राह्मण कहकर भी आपका अपमान करें तो दुनिया में ऐसा कौन सा योद्धा है जिसके आगे भयभीत होकर हम मस्तक झुकाएं। इस शालीनता और दृढ़ता से भरे संवाद से परशुराम जी कुछ सोचने को बाध्य हुए उन्होंने उनकी परीक्षा अपना धनुष देकर की और संतुष्ट होकर आशीर्वाद देकर चले गए इस प्रकार के प्रसंगों में व्यक्ति को अपना प्रखर स्वरूप को भी उबारना पड़ता है।
अभी हाल ही में एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में एमबीबीएस के छात्रों को वहां के प्रोफेसर द्वारा हिंदू देवी-देवताओं पर जो आपत्तिजनक सामग्री पढ़ाई जा रही थी। दरअसल वह सामग्री पढ़ाई नहीं जा रही थी यदि गहराई से हम इस विषय पर चिंतन करें तो ध्यान में आएगा कि सामग्री के रूप में छात्रों के मन मस्तिष्क पर सनातन धर्म को लेकर जो विषपान कराया जा रहा था उसका असर समय के साथ संपूर्ण समाज पर होना था। यह छात्र भविष्य के चिकित्सक थे और चिकित्सक का एक ही धर्म होता है- समाज में पनप रहे रोगों का नाश करके मनुष्य को एक स्वस्थ जीवन देना। शायद इसी चिंतन को ध्यान में लाकर किसी ने इस सामग्री को लेकर यूनिवर्सिटी से प्रश्न पूछ लिया विश्वविद्यालय में यह क्या पढ़ाया जा रहा है ?? उन्हें एक धर्म विशेष के प्रति इतना नकारात्मक, आपत्तिजनक विषय रूपी विषपान आखिर क्यों कराया जा रहा था? समाज के प्रत्येक व्यक्ति को आज इसका चिंतन करने की आवश्यकता है। साथ ही अभिभावक के रूप में भी हमारी जिम्मेदारी दोगुनी हो जाती है कि जिस यूनिवर्सिटी का नाम विश्वविख्यात है और जहां प्रवेश लेने पर समाज में हमें स्वयं में भी गौरव की अनुभूति होती है, लेकिन शिक्षा के नाम पर हमें वहां क्या परोसा जा रहा है? इसकी चिंता भी समाज को ही करनी होगी। उपरोक्त प्रकरण में यह विरोध किसी एक धर्म के अनुयायियों ने नहीं बल्कि अन्य धर्म के लोगों ने भी प्रदर्शित किया जो धर्म परायण समाज का संकेत है। विश्वविद्यालय प्रशासन ने भी प्रोफेसर की इस हरकत पर तत्काल रुप से निलंबन की कार्यवाही कर दी। परंतु विचारणीय तथ्य यह है कि क्या मात्र निलंबन ही पर्याप्त है इस दूषित मानसिकता को बदलने का या समाज में व्याप्त ऐसी मानसिकता को रोकने का कोई और उपाय भी हो सकता है। जो मनुष्य धर्म की अवज्ञा करता है, धर्म की उपेक्षा करके जो अनीति, पाप करता है साक्षात रुप से वह काल को आमंत्रित करता है। जिसका उद्धरण हमें लंकाकांड में भी मिलता है जब महारानी मंदोदरी रावण को समझाती हैं कि धर्म-बुद्धि तथा विचार-शक्ति का क्षय ही काल का प्रत्यक्ष कोप है। वह किसी पर डंडा नहीं चलाता।
- काल दंड गहि काहु न मारा।
- हरइ धर्म बल बुद्धि विचारा।।
निष्कर्षित रूप से महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि अब समाज को अपनी भूमिका धर्म, संस्कृति और शिक्षा में समान रूप से निश्चित करनी होगी। उसे एक जागरूक समाज के रूप में उभर कर आगे आना होगा जिसकी प्रतीक्षा पूरा संसार कर रहा है। समाज में देवत्व की स्थापना के साथ ही असुरत्व के उन्मूलन हेतु संघर्षमय रहना होगा। इसके लिए नम्रता, दयालुता, सरलता जैसे गुणों के साथ ही साहस, शौर्य, सूझ-बूझ एवं उचित नीतियों का चयन कर हमें आगे बढ़ना होगा। यही समय की मांग है और सम्पूर्ण विश्व की भी।