• प्रथम प्रभाग-०१-

आध्यात्मिक जीवन का प्रारंभ

मानव अनंत आनंद चाहता है, पर वह यह नहीं जानता कि उसे कैसे और कहां से प्राप्त करे। वह इंद्रियसुख को ही विशुद्ध आनंद समझ बैठता है। इसलिए वह इहलोक और परलोक की आकर्षक वस्तुओं की कामना करता है।

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धन, संतति, प्रतिष्ठा जैसी सैकड़ों सांसारिक वस्तुएं उसे आकृष्ट करती हैं और वह उनके पीछे दौड़ता रहता है। इनमें से कुछ को पकड़कर वह कुछ समय तक इंद्रिय सुख का लाभ लेता है और कुछ उसकी पकड़ में नहीं आती हैं तो दुःखी होता है। और कुछ समय उसकी पकड़ में रहकर अचानक गायब हो जाती हैं। ऐसी क्षतियां उसे कष्ट देती हैं। पुनः जैसे ही कोई वांछित वस्तु उसे प्राप्त होती है, उसके मन में नयी कामनाएं उठती हैं जो उसे चंचल बना देती हैं।


हताश होकर वह देखता है कि इंद्रियां कभी तृप्त नहीं हो सकतीं, वरन् भोग की इस प्रक्रिया से उनकी भूख और बढ़ जाती है।
इस प्रकार मानव का जीवन इन क्षणस्थायी सुखों के लिए अंतहीन दौड़ बन जाता है।इस पथ पर वह कभी संतोष नहीं पाता।

  • अतृप्त वासनाएं और बलात् इष्टवियोगजनय दुःख पग-पग पर उसका पीछा करते हैं। और यह जन्म-जन्मान्तर तक चलता रहता है।


उच्चतर तथा सूक्ष्मतर जगत भी उसे अनन्त आनंद नहीं दे सकता। यद्यपि ऐसे लोक हैं जहां अमिश्रित सुख प्राप्त होता है तथा पुण्यकर्ता व्यक्ति मृत्यु के बाद इन लोकों में जाकर सुख का उपभोग कर सकता है; परन्तु यह कुछ समय के लिए ही होता है। इसके बाद उसे नीचे उतरकर पुनः पृथ्वी पर जन्म ग्रहण करना पड़ता है।

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वासना ही वह जंजीर है जो उसे जन्म-मरण के चक्र में बांधे रहती है। फिर भी मानव काम-वासनाओं को त्यागना नहीं चाहता।इंद्रियविषयों के आकर्षण उसे अभिभूत किये रहते हैं। ऊंट कंटीली झाड़ियां हीं चबाना चाहता है,भले ही उसके मुख से रक्त क्यों न निकले। अधिकांशतः लोग इसी श्रेणी के हैं।


इन लोगों (साधकों को) के लिए कर्ममार्ग प्रथम सीढ़ी है। उन्हें सभी वासनाओं का त्याग नहीं करना है। केवल शास्त्रों के विधि-निषेध का ईमानदारी से पालन करते हुए अपनी वासनाओं को नियमित करना है। ऐसा करने वाले इह और परलोक की शुभ वस्तुओं का उपभोग करते हैं और उनका मन कुछ मात्रा में शुद्ध हो जाता है।

  • और उच्चतर लोकों या स्वर्गों के तीव्र भोगों का उपयोग कुछ समय तक करने के बाद वे पृथ्वी पर लौट आते हैं, और अधिक भक्तियुक्त कर्म का जीवन व्यतीत करते हैं। पुनः उनके पुण्य कर्म उन्हें मरणोपरांत स्वर्गलोक के तीव्रतर भोगों का उपभोग करते हैं।यह प्रक्रिया तब तक पुनः पुनः होती रहती है, जब तक उसका चित्त पर्याप्त मात्रा में शुद्ध नहीं हो जाता।इस अवस्था में इच्छाओं की निरर्थकता समझ पाते हैं।बार बार के अनुभवों से वे यह सत्य हृदयंगम कर पाते हैं कि- ‘जिस प्रकार अग्नि कभी घी के द्वारा शांत नहीं की जा सकती है, उसी प्रकार वासनाएं भोग के बाद शांत नहीं की जा सकती तथा अतृप्त वासनाएं दुखदाई होती हैं।’

यही नहीं, स्वर्गादि लोकों में भी भोग का काल सीमित है। अपने स्वयं के अनुभवों से वे निश्चित रूप से यह समझ जाते हैं कि-‘सकाम कर्म वह अनन्त आनंद प्रदान नहीं कर सकते,जिसे वे सदा खोजते रहे हैं। वासनाओं की निरर्थकता को समझकर वे उस पथ को खोजने लगते हैं,जो उन्हें नित्य् आनंद,चिर् जीवन तथा असिम ज्ञान प्रदान कर सके।

क्रमशः…….

By VASHISHTHA VANI

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