बीते दिनों अदालत ने साल 2008 में अहमदाबाद शहर में सीरियल ब्लास्ट के दोषियों को कड़ी सजा का एलान किया। भारतीय न्याय व्यवस्था के इतिहास में अब तक की सबसे बड़ी सजा में अहमदाबाद ब्लास्ट के 49 दोषियों में से 38 को फांसी सुनाई गई और ग्यारह आखिरी सांस तक सलाखों के पीछे कैद रहेंगे। आंतकियों को लेकर देश में राजनीति किसी से छिपी नहीं है। चंद राजनीतिक दल अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिये आंतकियों को बचाने की कोशिशें करते दिखाई देते हैं। ऐसे राजनीतिक परिदृश्य में माननीय न्यायालय द्वारा दूध का दूध और पानी का पानी करते हुए जो सजा की घोषणा की गयी है, वो काबिलेतारीफ और एक नजीर है। तथ्यों के आलोक में बात की जाए तो भारतीय इतिहास में पहली बार 38 लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई है। इससे पहले राजीव गांधी हत्याकांड में एक साथ 26 लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई थी। अहमदाबाद बम कांड में 29 आरोपियों को सबूतों के अभाव में बरी किया गया है। दूसरी ओर 49 आरोपियों को गैर-कानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम के तहत दोषी करार दिया गया।

अहमदाबाद धमाकों के करीब चौदह साल बाद मामले में फैसला आया है। विस्फोट की घटना को याद करें तो आंखों से आंसू निकल आते हैं। इन विस्फोटों में कितने घर बर्बाद हुए। 26 जुलाई, 2008 को गुजरात के अहमदाबाद में सत्तर मिनट के भीतर एक के बाद एक इक्कीस धमाकों से पूरा देश हिल गया था। सरकारी सिविल अस्पताल, नगर निगम के एलजी हॉस्पिटल, बसों में, पार्किग में खड़ी मोटरसाइकिलों, कारों तथा अन्य स्थानों पर धमाके हुए थे। इन धमाकों में 56 लोग मारे गये थे और दो सौ से अधिक घायल हुए थे। जिधर देखो उधर तबाही का मंजर था। बाद में विशेष जांच टीमों के प्रयास से धमाकों में शामिल 78 लोगों को गिरफ्तार किया गया था।

इन धमाकों के कुछ ही दिन बाद सूरत में भी 29 बम मिले थे, लेकिन खुशकिस्मती से उनमें से किसी में भी विस्फोट नहीं हुआ। सजा पाने वाले सभी दोषी प्रतिबंधित संगठन स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) और आतंकवादी संगठन इंडियन मुजाहिद्दीन (आईएम)से जुड़े थे। देश की अलग-अलग जेलों में बंद सभी दोषियों ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए अपनी किस्मत का फैसला सुना। आईएम ने गुजरात में 2002 में हुए गोधरा दंगों का बदला लेने के लिए आतंक की साजिश रची थी। जम्मू-कश्मीर, पंजाब और उत्तर पूर्वी भारत के राज्यों को छोड़ कर देश के दूसरे हिस्सों में आतंकवादी हमलों की बात करें तो वर्ष 2005 से 2013 के बीच भारत में 39 बड़े आतंकवादी हमले हुए, जिनमें 750 नागरिक मारे गए और 33 जवान शहीद हुए। जबकि 2014 से 2019 के बीच देश में 21 आतंकवादी हमले हुए, जिनमें केवल चार नागरिकों की मौत हुई।

जमीयत के अध्यक्ष अरशद मदनी ने कोर्ट के फैसले पर अविश्वास जताते हुए कहा है कि संगठन दोषी ठहराए गए लोगों के साथ हाई कोर्ट में मजबूती से खड़ा होगा और उन्हें कानूनी सहायता मुहैया कराएगा। जमीयत के इस रुख की हर ओर से निंदा हो रही है तथा इसे देश तोड़ने वाले लोगों तथा आतंकवाद को बढ़ावा देने के तौर पर देखा जा रहा है। अदालत के निर्णय पर अविश्वास व्यक्त करना, अदालत की अवमानना और निरादर के सिवाय कुछ और नहीं है। असल में अरशद मदनी जैसे लोगों की वजह से ही देशविरोधी ताकतों को हौंसला बुलंद होता है। और वहीं आमजन में ये संदेश भी जाता है कि अदालत ने निर्दोषों को फांसी और उम्रकैद की सजा सुनाकर बेइंसाफी की है। विश्व हिंदू परिषद ने तो इसे लेकर जमीयत जैसे संगठनों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई तक की मांग की है।

आतंक के इस दानव के बढते आकार के पीछे का एक कडवा सच यह भी है कि दुनिया के बहुत से देश और लोग इसे सिर्फ धर्म विशेष के चश्मे से देख रहे हैं। कुछ को तो यह इस्लाम का प्रसार दिखाई दे रहा है। ऐसे मे उनका सहानुभूतिपूर्ण नजरिया आग मे घी का काम कर रहा है। जरूरत तो इस बात की है कि इस्लाम को मानने वाले स्वयं आगे आयें और इस दानव की काली छाया से इस्लाम को मुक्त करें और दुनिया को बतांये कि यह मजहब किसी भी रूप मे हिंसा की इजाजत नही देता। इसमें कोई संदेह नही कि अगर आज दुनिया के सभी देश आतंक के खिलाफ ईमानदारी से आगे आएं तो यह खूनी खेल ज्यादा दिन नही टिक सकता। लेकिन राजनीतिक पैतरेबाजी, पूर्वाग्रह और पाखंडपूर्ण सहानुभूति के कारण यह संभव नही हो पा रहा है। इसके लिए धर्म और देश की सीमाओं से परे होकर सोचना ही होगा। तभी आतंकवाद पर निर्णायक चोट संभव है। भारत मे धर्मनिरपेक्षता का पाखंड ऐसा है कि वह जाने अनजाने आतंकवाद पर की जानी वाली चोट को ही कमजोर कर रहा है।

श्रीलंका में जब सीरियल ब्लास्ट करने वाले आतंकी पकड़े गए तो उनके खिलाफ पूरा देश एकजुटता से खड़ा हुआ और वहां के वकीलों ने उन आतंकियों का केस लड़ने से मना कर दिया, लेकिन अपने यहां न्यायिक व्यवस्था पर ही सवाल खड़ा कर देश बांटने की कोशिश हो रही है। चिंताजनक स्थिति यह है कि इसमें कुछ राजनीतिक दल भी संलिप्त हैं। जो आतंकियों के साथ न सिर्फ खड़े रहे हैं बल्कि इनके नेता आतंकियों के इनकाउंटर पर आंसू बहाते हैं। ऐसे लोगों से भी देशवासियों को अब सचेत रहने की आवश्यकता है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि पुलिस और न्यायायिक व्यवस्था के अभूतपूर्व प्रयासों से आतंकी अपने अंजाम तक पहुंचे हैं। पुलिस ने बिना किसी चश्मदीद के जांच को आगे बढ़ाते हुए कई राज्यों में फैले इस आतंकी षडयंत्र के तार को ढूंढ निकाला। जांच टीम से जुड़े लोग और जज कई दिनों तक अपने-अपने घरों को नहीं गए, क्योंकि उन्हें जान से मारने की धमकी मिली थी। उस स्थिति में इन आतंकियों के साथ खड़ा रहकर जमीयत ने साफ कर दिया है कि वो देशविरोधी ताकतों की पक्की हिमायती है। जमीयत को यह समझना चाहिए कि न्यायालय का काम तुष्टिकरण करना नहीं है। वह दीन-मजहब भी नहीं देखता है। बल्कि साक्ष्यों के आधार पर फैसले तक पहुंचता है।

कहीं न कहीं सीरियल ब्लास्ट का होना हमारे खुफिया तंत्र की नाकामी की ओर भी इशारा करता है। इतने बड़े षड्यंत्र को आतंकी चुपचाप कैसे अंजाम देने में सफल रहे। निस्संदेह, बम धमाकों को अंजाम देने वाले संगठन के बारे में आम लोगों को ज्यादा जानकारी नहीं थी, लेकिन 2007 में मीडिया के जरिये संगठन ने भारत में अपनी उपस्थिति का इजहार किया था। इसे गंभीर संकेत मानकर इस दिशा में सतर्क प्रतिक्रिया दी जाती तो शायद अहमदाबाद बम धमाकों को टाला जा सकता था।

इसमें कोई शक नहीं है कि जटिल जांच प्रक्रिया और अदालत की लंबी कार्यवाही के बाद सामने आया फैसला आतंक के मंसूबे पालने वाले लोगों के लिये सबक है कि अपराधी कितने भी शातिर क्यों न हों, उन्हें एक दिन कानून के हिसाब से सजा मिलती ही है। निश्चित तौर पर ऐसी चुनौतियां हमारे सामने आने वाले वक्त में आ सकती हैं। हमें ऐसी सोच पर अंकुश लगाने का प्रयास करना चाहिए जो निर्दोष के खून से खेलने में सुकून महसूस करती है। साथ ही पुलिस प्रशासन को सतर्क रहते हुए ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिये अतिरिक्त प्रयास करने होंगे। देश में चंद विरोधी ताकतें देश को अस्थिर करने की कोशिशें में जुटी रहते हैं, उनके लिये भी ये सख्त संदेश है कि देश में आंतक फैलाने की सजा मौत या ताउम्र कैद के अलावा कुछ और नहीं है।

-लेखक राज्य मुख्यालय पर मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं।

By VASHISHTHA VANI

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