देश के विपक्षी समय – समय पर एकता की बात कर रहे हैं। लेकिन वे यह नहीं बताते कि एकता का यह आधार क्या होगा? यह विडंबना की बात है कि इस देश की आजादी के साथ ही विपक्ष की स्थिति कमजोर रही है। भारतीय लोकतंत्र का जन्म ही कमजोर विपक्ष के साथ हुआ और बीच में उतार चढ़ाव के साथ वह मजबूत हुई लेकिन आखिरकार इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में वह फिर कमजोर स्थिति में आ चुका है। इसका दोष भारतीय समाज के मानस को भी दिया जा सकता है और उसकी संस्थाओं की संरचना को भी। संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि देश में नागरिक अधिकारों और लोकतंत्र की स्थिति तभी मजूबत रह सकती है जब विपक्ष मजबूत हो। क्योंकि विपक्ष के कमजोर रहने पर लोकतांत्रिक संस्थाएं अपने दायित्व ठीक से निभा नहीं पातीं। हालांकि वे प्रयास करती हैं। जैसे न्यायपालिका, मीडिया और कार्यपालिका की अपनी सक्रियता कभी जूडिशियल एक्टिविज्म के रूप में सामने आती है तो कभी मीडिया के आक्रामक रूख और खोजी पत्रकारिता और तो कभी चुनाव आयोग जैसी संस्था के शीर्ष पर टीएन शेषन का अवतार हो जाता है।

विपक्षी एकता के एक महत्वपूर्ण सूत्रधार डॉ. राममनोहर लोहिया इस देश में कांग्रेस के विरुद्ध विपक्ष निर्माण के लिए बेहद बेचैन थे। उन्होंने यहां तक एलान कर दिया था कि वे कांग्रेस के खिलाफ शैतान से हाथ मिला लेंगे। यह उनकी झुंझलाहट थी और उन्होंने ऐसा किया भी। उस समय जनसंघ समाजवादियों और कम्युनिस्टों के लिए भी एक अछूत पार्टी थी लेकिन संयुक्त विधायक दल के माध्यम से उन्होंने सात राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकार बनवा दी थी। संयोग से उन संविद सरकारों में एक ओर जनसंघ थी तो दूसरी ओर कम्युनिस्ट पार्टी भी। भले विपक्षी दलों की वे गैर कांग्रेसी सरकारें ज्यादा दिन नहीं चलीं लेकिन उससे देश में एक हौसला कायम हुआ कि सत्ता का विकल्प तैयार हो सकता है।
आज देश में उसी साहस, कल्पनाशीलता और जोखिम की जरूरत है। आज भारतीय जनता पार्टी उसी तरह से सत्ता पर कायम है जैसे, पचास और साठ के दशक में कांग्रेस पार्टी कायम थी। इसलिए इस एकाधिकार का विकल्प भी उसी जज्बे से बनेगा जिस भावना से डॉ. लोहिया ने कांग्रेस का विकल्प तैयार किया था या जिस जज्बे से जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की तानाशाही को उखाड़ फेंका था। अगर डॉ. लोहिया कहते थे कि मैं जानता हूं कि मैं पहाड़ से टकरा रहा हूं और इससे मेरा सिर फूटेगा लेकिन इससे पहाड़ में दरार भी पड़ेगी। वैसे ही जब हिरासत में जेपी की किडनी खराब हो गई तो उन्होंने एक अधिकारी से कहा कि मेरी सेहत खराब है लेकिन मेरी सेहत से ज्यादा देश की सेहत जरूरी है।संयोग से विपक्षी एकता के लिए अथक प्रयास करने वाले वे राजनेता राष्ट्रीय एकता के लिए भी अति समर्पित थे। डॉ. लोहिया जो कुछ करते थे उसका प्रमुख उद्देश्य लोकतांत्रिक ढंग से राष्ट्रनिर्माण ही रहता था। बल्कि पिछड़ी और दलित जातियों के लिए सामाजिक न्याय का समर्थन करते हुए उन्होंने कहा था कि अगर आजादी की लड़ाई उन जातियों के नेतृत्व में लड़ी गई होती तो शायद देश का विभाजन न होता। हालांकि उनके इस कथन पर आज की स्थितियां कई सवाल पैदा करती हैं। पर वह समता और एकता की एक दृष्टि थी जिसे आज भी अप्रासंगिक कहना ठीक नहीं होगा।
इसलिए आज जो भी नेता विपक्षी एकता का प्रयास कर रहे हैं उन्हें देश की जनता के सामने यह साबित करना होगा कि मोदी की शैली में कायम की जा रही राष्ट्रीय एकता न सिर्फ विपक्ष को तोड़ रही है बल्कि वह समाज और देश को भी तोड़ रही है। वह लोकतांत्रिक संस्थाओं को नष्ट कर रही है और असत्य को वैधता दे रही है। इतिहास और राजनीति की गहरी समझ रखने वाले लोग यह महसूस करने लगे हैं कि भारत में आज जो कुछ हो रहा है उसका परिणाम सिर्फ तानाशाही के रूप में नहीं होगा बल्कि उसका परिणाम देश के विखंडन के रूप में भी होगा। यहां बाल्कन देशों जैसी स्थिति निर्मित हो रही है। मामला सिर्फ असम और मिजोरम जैसे पूर्वोत्तर राज्यों के बीच मचे सीमा विवाद का ही नहीं है यह विवाद देश के विभिन्न समुदायों और जातियों के बीच सुलग रहा है।लेकिन विडंबना यह है कि इस देश का सत्तापक्ष और उसका ठकुरसोहाती करने वाला मीडिया न तो सत्ता पक्ष के चरित्र का विश्लेषण संविधान और लोकतंत्र के मूल्यों के आधार पर और न ही विपक्ष का। यह सही है कि मीडिया को पालिमिक्स करनी पड़ती है और सामग्री को रोचक बनाने की एक शैली है। लेकिन उस पालिमिक्स की भाषा का भी एक स्तर होता है जो अब और कितना गिरेगा कहा नहीं जा सकता। सवाल महज भाषा के गिरने का नहीं है, सवाल उस सोच के गिरने का है जिसमें सत्य, शालीनता और लोककल्याण मीडिया के आवश्यक मूल्य होने चाहिए पर वे सिरे से नदारद हैं।
विपक्षी एकता के आज के जो मूल्य हो सकते हैं वे किसान मजदूर एकता, सबकी आर्थिक उन्नति, सौहार्द और विकेंद्रीकरण के रूप में चिह्नित किए जा सकते हैं। इन्हें अगर संवैधानिक भाषा में कहा जाए तो वे स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के मूल्य हैं जिसमें मानवीय गरिमा शामिल है। जाहिर सी बात है यह सब राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक न्याय के बिना संभव नहीं है। किसान आंदोलन ने देश के विपक्षी दलों के सामने एक मॉडल पेश किया है कि 300 संगठनों और नेताओं के बावजूद अगर लक्ष्य बड़ा है तो लंबे समय तक एक साथ चल पाने में कोई मुश्किल नहीं है।इस दौरान विपक्षी दलों को अराजकतावादी, विखंडनवादी, संकीर्ण क्षेत्रीय दृष्टि वाला और भ्रष्ट भी कहा जाता रहेगा। लेकिन अगर उनका लक्ष्य महान है तो वे जल्दी ही यह साबित कर देंगे कि भारत जैसे विविधता वाले देश की एकता वे ही कायम कर सकते हैं। जो लोग यह कह रहे हैं कि विडंबना है कि विपक्षी एकता की पहल तृणमूल कांग्रेस जैसा क्षेत्रीय दल कर रहा है और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी नहीं, उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि पहले भी विपक्षी एकता की कोशिशें कभी आंध्र प्रदेश से हुई हैं तो कभी जनता दल की तरफ से। भाजपा अपनी छवि के कारण ऐसा प्रयास कम करती रही है। वह अक्सर पिछलग्गू रही है। कांग्रेस का कमजोर होना या बिखरना एक बड़ा सवाल जरूर है लेकिन वह उतना बड़ा सवाल नहीं है जितना बड़ा सवाल देश के लोकतंत्र का बिखरना और उसकी एकता का भीतर से टूटना। इसलिए देश की एकता की गारंटी विपक्षी एकता से ही आ सकती है न कि मोदी जी की दिखावटी एकता कायम करने वाली मन की बात से।
गौरतलब है कि स्वतंत्र भारत की राजनीति में विपक्षी एकता ने धीरे-धीरे जिस तरह ‘जुमले’ का रूप लिया है उसका मुख्य कारण यह है कि इसके प्रयासों के पीछे कोई गंभीर राजनैतिक सोच न होकर ‘वक्ती मौका परस्ती’ ज्यादा होती है जिसकी वजह से किसी भी समय में विपक्षी एकता किसी निश्चित ढांचे में नहीं ढल पाती। वैचारिक ‘विषमता’ को लोकतान्त्रिक राजनैतिक प्रणाली में जब किसी एक ‘सांचे’ में ढालने की कोशिश की जाती है तो उसका लक्ष्य केवल सत्ता पाना रहता है और सत्ता प्राप्त होने पर यह ‘सांचा’ अपनी विपरीत तहों को अपने ही रंगों में खोलने लगता है। पिछले तीन दशकों में ऐसे कई प्रयास किये गये जो सत्ता के रहने तक ही सफल रहे जैसे एनडीए (वाजपेयी सरकार के दौरान) व यूपीए (मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान)। हालांकि केन्द्र में फिलहाल श्री नरेन्द्र मोदी की सरकार एनडीए सरकार ही कहलाती है परन्तु 2014 से लेकर अभी तक इस सरकार का नेतृत्व करने वाली भाजपा को लोकसभा में अपने बूते पर ही स्पष्ट बहुमत प्राप्त है।
दरअसल मजबूत विपक्षी एकता की शर्त का खुलासा हमारे सामने 1998 में पहली बार तब हुआ जब केन्द्र में स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी और 1999 में इसने अपने घटक दलों के साथ चुनाव पूर्व गठबन्धन करके मैदान मारा। मगर इस गठबन्धन में भाजपा ही सभी अन्य सहयोगी दलों के लिए चुम्बकीय आकर्षण बनी रही क्योंकि लोकसभा में इसके लगभग 180 सांसद जीते थे। इसके बाद जब 2004 में एनडीए की पराजय हुई और लोकसभा में कांग्रेस पार्टी सर्वाधिक 146 सीटें लाई तो चुनाव के बाद यूपीए का गठन श्रीमती सोनिया गांधी ने किया और कई दल एनडीए का साथ छोड़ कर यूपीए में भी आ गये। इसके बाद 2009 में यूपीए संगठित होकर चुनावों में गया परन्तु बिहार में श्री लालू प्रसाद यादव व स्व. रामविलास पासवान ने इससे अलग होकर चुनाव लड़ा और जबर्दस्त मुंह की खाई और स्व. पासवान स्वयं चुनाव हार गये और लालू जी की पार्टी मुश्किल से चार स्थान ही जीत पाई।
इसका निष्कर्ष राजनैतिक भाषा व गणित में यही निकलता है कि केन्द्र में वैकल्पिक गठबन्धन तभी संभव है जबकि किसी बड़े राष्ट्रीय दल के पीछे विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियां बन्धी हुई रहें और उसकी विचारधारा मध्यमार्गी जैसी हो। मगर हाल ही में तेलंगाना के मुख्यमन्त्री के. चन्द्रशेखर राव मुम्बई की यात्रा करके आये हैं और उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमन्त्री शिवसेना के नेता श्री उद्धव ठाकरे के साथ दो घंटे की लम्बी बातचीत करके विभिन्न क्षेत्रीय दलों का साझा गुट बना कर भाजपा का विकल्प तैयार करने का आह्वान किया और कहा कि आज देश को परिवर्तन की राजनीति की जरूरत है। इस सन्दर्भ में उन्होंने उसी राग को अलापा जो भाजपा की राजनीति के खिलाफ अक्सर अलापा जाता है। इस बातचीत में बदले की राजनीति का भी जिक्र किया गया और इसके लिए भाजपा को जिम्मेदार बताया गया। श्री ठाकरे से भेंट करने के बाद चन्द्रशेखर राव ने राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता श्री शरद पंवार से भी भेंट की मगर श्री पंवार ने भेंट के बाद साफ कह दिया कि उनकी श्री राव से राजनैतिक विषयों पर बातचीत नहीं हुई है बल्कि विकास के मुद्दों पर ही बातचीत हुई है जबकि श्री राव ने सुझाव दिया था कि श्री पंवार के गृह क्षेत्र बारामती में सभी क्षेत्रीय दलों की बैठक बुला कर श्री पंवार उनमें एकता लाने की शुरूआत करें। श्री पंवार वर्तमान समय के सबसे वरिष्ठ सक्रिय राजनीतिज्ञ हैं अतः चन्द्रशेखर राव के प्रस्ताव पर उनकी इतनी ठंडी प्रतिक्रिया बताती है कि वह श्री राव की ‘कसरत’ को सिवाय जुबानी जमा-खर्च से ज्यादा कुछ नहीं समझते हैं।
उधर प. बंगाल की नेता सुश्री ममता बनर्जी भी कई बार क्षेत्रीय दलों में एकता स्थापित करके विकल्प तैयार करने की बात कह चुकी हैं। वह भी इस गलतफहमी में लगती हैं कि किसी एक राज्य में फतेह के झंडे गाड़ देने से किसी नेता या दल की राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता हो जाती है। बेशक नेता किसी एक राज्य का हो सकता है मगर उसकी पार्टी का राष्ट्रीय जनाधार होना बहुत जरूरी होता है जिससे विभिन्न क्षेत्रीय दलों के लिए वह हर मोर्चे पर एक सहारा या अवलम्ब बनी रहे। हम पहले भी 90 के दशक में देख चुके हैं कि तमिलनाडु की नेता स्व. जयललिता के नेतृत्व में बने भाजपा व कांग्रेस विहीन कथित तीसरे मोर्चे की देश की जनता ने क्या हालत बनायी थी। तब से लेकर अब तक देश की राजनीति में गुणात्मक अंतर आ चुका है और पूरा राजनैतिक विमर्श दक्षिणमुखी हो चुका है। अतः विपक्षी एकता का मार्ग भी तभी निकल सकता है जब भाजपा के मुकाबले कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी के साये में विभिन्न क्षेत्रीय दल अपने-अपने राजनैतिक एजेंडे में समयानुसार संशोधन करके एकत्र हों और अपने ‘अवलम्ब’ की राष्ट्रीय ताकत का फायदा उठायें। विपक्षी एकता टुकड़ों में किस तरह हो सकती है।