• लेखक ललित गर्ग

केंद्रीय एजेंसियां ईडी, सीबीआइ अथवा आयकर विभाग इनदिनों राजनीतिक दलों एवं नेताओं के पर कार्रवाई करती हुई नजर आ रही है, आजादी के बाद से भ्रष्टाचार एवं घोटालों पर नियंत्रण के लिये आवाज उठती रही है, इसके लिये आन्दोलन एवं अनशन भी होते रहे हैं, लेकिन सबसे प्रभावी तरीका केन्द्रीय एजेंसियों की कार्रवाई एवं न्यायालयों की सख्ती ही है, जो भ्रष्टाचारियों पर सीधा हमला करती है। देश में सर्वाधिक भ्रष्टाचार राजनीतिक दलों में ही व्याप्त रहा है, इसलिये अब तक केन्द्रीय एजेंसियां की कार्रवाईयां उन पर प्रभावी नहीं हो पा रही थी। लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता हासिल करते ही भ्रष्टाचार के खिलाफ कमर सकी है, जिसका असर देखने को मिल रहा है। भले ही इनदिनों हो रही केन्द्रीय एजेंसियों की कार्रवाई को राजनीतिक प्रेरित बताया जाये, लेकिन इससे भ्रष्टाचार को समाप्त करने की दिशा में एक कारगर एवं प्रभावी कदम कहा जायेगा। दिल्ली में आम आदमी पार्टी हो या कांग्रेस या अन्य राजनीतिक दल, जब-जब उनके भ्रष्टाचार उजागर हुए, केन्द्रीय एजेंसियों ने उनके खिलाफ कार्रवाई की, उसे डराने का हथकंडा कहा गया हो या राजनीतिक प्रेरित, जनता ने उनका स्वागत ही किया है। भ्रष्टाचार को शिष्टाचार मानने की मानसिकता से उबरना ही होगा।

इनदिनों छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के लगभग एक दर्जन नेताओं के ठिकानों पर प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी के छापों की कार्रवाई चल रही है। इससे कांग्रेस में बौखलाहट देखने को मिल रही है, पार्टी के नेताओं का कहना है कि इस तरह के हथकंडों से डराया नहीं जा सकता। प्रश्न है कि राजनीति दलों का सर्वोच्च नेतृत्व अपने नेताओं के भ्रष्ट कारनामों पर खुद सख्त क्यों नहीं होता? क्यों भ्रष्टाचार पर ये दल संरक्षण की मुद्रा में दिखाई देते हैं? चूंकि ईडी की यह कार्रवाई राज्य में कांग्रेस के अधिवेशन के पहले हुई, इसलिए उसके कुछ ज्यादा ही राजनीतिक मायने देखे जा रहे हैं। वैसे यह अधिवेशन न होता तो भी यह तय था कि कांग्रेस की ओर से ईडी को कोसा जाता और यह आरोप लगाया जाता कि केंद्रीय एजेंसियों का अनुचित इस्तेमाल किया जा रहा है। वास्तव में यह वह आरोप है, जो हर उस राजनीतिक दल की ओर से उछाला जाता है जिसके नेता ईडी, सीबीआइ अथवा आयकर विभाग की जांच के दायरे में आते हैं। छत्तीसगढ़ में जो छापेमारी हुई, वह अवैध कोयला खनन के मामले में हुई, जिसमें वरिष्ठ अधिकारियों समेत नौ लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है। पता नहीं इस घोटाले का सच क्या है, लेकिन आज कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि राज्यों में राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर के भ्रष्टाचार पर लगाम लगी है।

नेताओं और नौकरशाहों के भ्रष्टाचार की आए दिन आने वाली खबरें यही बताती हैं कि केंद्रीय एजेंसियां डाल-डाल हैं तो भ्रष्टता का जाल पात-पात। विडम्बना तो यह है कि नेतृत्व करने वाली ताकतें भ्रष्टाचार में लिप्त है। लेकिन आज भ्रष्टाचार के खिलाफ देश में जो माहौल बना है, वह निश्चय ही बहुत बड़ी बात है, एक शुभ संकेत है। हमें इस मौके को बर्बाद नहीं करना चाहिए। निश्चित ही भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का जो केन्द्रीय एजेंसियों की कार्रवाई का तरीका अपनाया जा रहा है, वह सही तरीका है। पूर्व में कुछ लोग अनशन और भूख हड़ताल को इसके खिलाफ लड़ाई का हथियार बनाते रहे हैं। मेरा मानना है कि यह गलत तरीका है। अनशन में मुद्दा पीछे छूट जाता है और अनशन करने वाले आदमी पर सारा ध्यान केंद्रित हो जाता है। मुद्दे को पीछे छोड़कर हम कुछ हासिल नहीं कर सकते।

तमाम कोशिशों के बावजदू भ्रष्टाचार और घोटालों का घटाटोप मौसम है, ऐसा कुछ भी कह पाना भले मुश्किल हो, जो भारत या इसके लोगों की जिंदगी पर उजली रोशनी डालता हो। भारत अपनी दुश्वारियों में लस्त-पस्त उस मध्ययुगीन योद्धा की तरह दिखता है, जो जंग के मैदान में आहें भर रहा है। कोई नहीं जानता, किसके दामन में कितने दाग हैं? कोई ऐसा नहीं जिस पर यकीन किया जा सके, धरती का कोई कोना नहीं, जिसके नीचे दबा कोई घोटाला खुदाई का इंतजार न कर रहा हो। लेकिन यही मौके होते हैं, जब किसी देश के सच्चे चरित्र का पता चलता है। आगे-पीछे फैशन के तहत हजारों जुमलों में किसी समाज को बहलाया जा सकता है, लेकिन बुरे वक्त में नहीं। भारत के चरित्र को परखने का भी यही समय है और मैं समझता हूं, इस पड़ताल की शुरुआत उन गलतफहमियों को उघाड़े जाने से होनी चाहिए, जो राजनीतिक दलों ने खुद के बारे में पाल रखी हैं। केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई को लेकर भले ही यह वातावरण बनाया जाए कि उनका राजनीतिक उपयोग किया जा रहा है, लेकिन आम जनता पर उसका असर मुश्किल से ही पड़ता है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि जनता इससे अच्छी तरह परिचित है कि नेताओं और नौकरशाहों के बीच भ्रष्टाचार की क्या स्थिति है?

राजनीतिक दल कुछ भी कहें, केंद्रीय एजेंसियों की छापेमारी के दौरान नेताओं और नौकरशाहों के यहां अकूत संपदा मिलने के प्रसंग त्रासद ही कहे जा सकते है। निश्चित रूप से भ्रष्ट तत्वों के खिलाफ कार्रवाई होनी ही चाहिए, लेकिन वह केवल छापेमारी तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। यह ठीक नहीं कि केंद्रीय एजेंसियां जिस तत्परता से भ्रष्ट तत्वों के यहां छापेमारी करती हैं, वह आगे नहीं निस्तेज हो जाती है। प्रायः घपले-घोटालों की जांच इतनी लंबी खिंचती है कि लोगों की संबंधित मामले में रुचि नहीं रह जाती। इसका कोई औचित्य नहीं कि भ्रष्ट तत्वों को सजा मिलने में जरूरत से ज्यादा देर हो। फिलहाल ऐसी ही स्थिति है। इसी कारण न तो भ्रष्ट तत्वों के दुस्साहस का दमन हो पा रहा है और न ही राजनीतिक एवं प्रशासनिक स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार में कोई कमी आती दिख रही है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की पूर्व रपट के अनुसार एशिया मे सबसे अधिक भ्रष्टाचार यदि कहीं है तो वह भारत में है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को इससे गंदा प्रमाण पत्र क्या मिल सकता है? इसका अर्थ क्या हुआ? क्या यह नहीं कि भारत में लोकतंत्र या लोकशाही नहीं, नेताशाही और नौकरशाही? भारत में भ्रष्टाचार की ये दो ही जड़े हैं। पिछले आठ-नौ साल में नेताओं के भ्रष्टाचार की खबरें काफी कम आई हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि भारत की राजनीतिक व्यवस्था भ्रष्टाचार मुक्त हो गई है। उसका भ्रष्टाचार मुक्त होना असंभव है। हां, सर्वोच्च नेतृत्व की कठोरता का यह असर है कि नेताओं ने भ्रष्टाचार की वैतरणी पर चादर डाल दी है। भ्रष्टाचार तो है पर दिखे ना इसकी कुचेष्टाएं हो रही है।

राजनेताओं का भ्रष्टाचार लूके-छिपे यथावत बदस्तुर जारी है। यह एक बड़ा सच है कि यदि नेता लोग रिश्वत नहीं खायेंगे, डरा-धमकाकर पैसा वसूल नहीं करेंगे और बड़े व्यावसायिक घरानों की दलाली नहीं करेंगे तो वे चुनावों में खर्च होने वाले करोड़ों रुपया कहां से लाएंगे? उनके ऐशोआराम पर रोज खर्च होनेवाले हजारों रुपया का इंतजाम कैसे होगा? उनकी और उनके परिवार की चकाचौंधपूर्ण जिंदगी कैसे चलेगी? इस राजनेताओं की भ्रष्ट अनिवार्यता को ढाई हजार साल पहले आचार्य चाणक्य और यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने अच्छी तरह समझ लिया था। इसीलिए चाणक्य ने अपने अति शुद्ध और सात्विक आचरण का उदाहरण प्रस्तुत किया और प्लेटो ने अपने ग्रंथ रिपब्लिक में दार्शनिक राजा की कल्पना की, जिसका न तो कोई निजी परिवार होता है और न ही निजी संपत्ति। लेकिन आज की राजनीति में परिवारवाद और निजी संपत्तियों के लालच ने देश की राजनीति को बर्बाद करके रख दिया है। नेताओं का भ्रष्टाचार ही नौकरशाहों को भ्रष्ट होने को प्रोत्साहित करता है। हर नौकरशाह अपने नेता की नस-नस से वाकिफ होता है। उसे उसके हर भ्रष्टाचार का पता होता है। इसलिए नौकरशाह के भ्रष्टाचार पर नेता उंगली नहीं उठा सकता है। दोनों एक-दूसरे के भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं। यदि भ्रष्टाचार पर प्रभावी ढंग से लगाम लगानी है तो ऐसी व्यवस्था करनी ही होगी, जिससे भ्रष्टाचार के आरोप से घिरे नेताओं और नौकरशाहों को यथाशीघ्र सजा मिले। आवश्यक केवल यह नहीं कि एजेंसियां अपनी जांच शीघ्र पूरी करें बल्कि संबंधित अदालतें जल्द फैसला भी सुनाएं।

यह लेखक के अपने विचार हैं।

By VASHISHTHA VANI

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